Wednesday, July 28, 2010

तपती सड़क पर नंगे पैर बचपन























(पिंकी उपाध्याय)

यह सिवनी शहर है गर्मी के दिनों में तापमान झुलसा देने वाली गर्मी पैदा करता हैं ऐसी गर्मी में एक तो आप घर से नहीं निकलते हैं और यदि निकलते भी हैं तो इतने सुरक्षित होकर कि गर्मी का कोई थपेड़ा आपको छू न जाये लेकिन भरी दोपहरी में तपती सड़क पर नंगे पैर दौड़ता बचपन अपनी गदंगी को दूर करने की चिंता किये बगैर आपकी गाड़ी को चमका देना चाहते हैं यह देखकर दिल धक से सीना फाड़कर बाहर आने को हो जाता है।
आधुनिक युग में डामर की सड़के लगभग शहर से गायब हो गई हैं और पूरे शहर में सीमेंट की सड़के बन गई हैं गर्मी में स्थिति यह है कि अगर २० सेकेण्ड आप सड़क में खड़े हो जाओ तो आपके पैर में फोला पडऩा आम बात है किंतु ये बच्चे तो इसके आदी होते है और कोई बात की शिकायत भी नहीं करते। आज मुझे कचहरी चौक में "आभा" मिली जिसकी उम्र लगभग ६-७ साल रही होगी मैली कुचेली फटी फ्राक पहनी आभा इतनी गर्मी में अपना पसीना भी नहीं पोंछ पा रही थी क्योंकि उसकी गोद में लगभग ६ महीने का छोटा बच्चा था वो मेरे पास आई और बोली बाबूजी और हाथ फैला दिया उसे एक का सिक्का देकर मैं अपने आप को धन्य समझने लगा था घर वापस लौटते समय रिंकी और नेहा मिली इनकी हालत भी आभा से मिलती जुलती थी तब इस बात ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि एक-दो रूपये देकर हम इन्हें भाषण और नसीहत देकर अपने आप को धन्य समझते हैं इन छोटी-छोटी नन्ही परियों के लिये राज्य शासन ने लाडली लक्ष्मी योजना बनाई हैं लेकिन फायदा कोई और उठा रहा हैं अगर सर्व शिक्षा अभियान लागू है तो क्यों ये नन्ही परियां रोड में भीख मांग रही हैं कुछ तो इनके माँ बाप भी उत्तरदायी हैं जो इन्हें भीख मांगने पर मजबूर करते हैं और कुछ हम जैसे लोगो की गल्ती है जो उन्हें देखते ही जैसे ये इंसान ही नहीं है अपना मुंह मोड़ लेते हैं प्रशासन की लापरवाही के चलते भीख मांगना इन बेटियों की आदत में शुमार हो गया हैं अगर शासन प्रशासन इन योजनाओं का सही उपयोग करता तो इन हाथों में कलम होती और ये नन्हें हाथ कभी भीख नहीं मांगते।

पेंच में चल रहा बाघो को बचाने के नाम पर षडयंत्र



वन विभाग प्रोजेक्ट टाईगर में पूर्णत: असफल
(पिंकी उपाध्याय)

सिवनी-:नामी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा इन दिनों पेंच अभ्यारण में सेव टाईगर्स अभियान तमाम तरह के प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल कर वृहद पैमाने पर चलाया जा रहा है क्या इससे बाघो की लगातार घटती संख्या में कमी आयेंगी...? शायद नहीं क्योंकि बाघों को बचाने के लिये जमीनी स्तर पर वन क्षेत्रों में इनके नाम पर हो रहे हल्ला मचाने वालो के द्वारा कोई भी सार्थक प्रयास नहीं किये जा रहे है कंपनी हो या फिर तथाकथित वाइल्ड लाईफर सभी केवल बाघ बचाने के नाम पर पैसा, नाम और शौहरत कमाने का धंधा कर रहे हैं।
प्रश्र यह उठता है कि प्रचार माध्यमों पर ऐसी कई विदेशी और देशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां करोड़ो रूपया पानी की तरह क्यों बहा रही हैं...?
इस बात का प्रचार कर शहरी क्षेत्रों में वे किस लक्ष्य को हासिल करना चाहती हैं....?
इन सवालों के पीछे छुपे तथ्य को जानना बहुत जरूरी हैं हालांकि ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि भारत ही नहीं अपितु दुनिया भर के लोग जागरूक होकर बाघो के प्रति अपनी संवेदनशीलता के साथ इनके संरक्षण में जुट जाये जबकि वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी, वन आश्रित समाज और गांवो के नागरिक जो जंगल और जमीन से सीधे जुड़े हैं वो पहले भी और आज भी बाघो से लगाव रखते हैं अंग्रेजो, जमीदारो, राजा महाराजाओं और नवाबों ने सिर्फ बाघों को अपनी शान के लिये मारा हैं और मार कर या तो मरे बाघ पर पाव रखकर फोटो खिंचाई हैं या बाघ की खाल को अपने ड्राईंग रूम की शोभा बनाया हैं।
१९४७ में भारत के आजाद होने के बाद भी सन १९७२ तक बाघों का शिकार जारी रहा इसके बाद वन्य जीव-जंतु संरक्षण अधिनियम १९७२ बनाया गया इसके बनाने के बाद भी प्राप्त आंकड़ो के अनुसार भारत में १४११ बाघ बचे हैं।
"आज भारत में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां व्यापार के लिये आई हैं जिन्होंने अवर सेव टाईगर्स के नाम का सहारा लेकर जंगल के पास की जमीनों को सस्ते दामो में प्राप्त कर लिया हैं इनका उद्देश्य बाघों को बचाना नहीं हैं सिर्फ उस नाम का सहारा लेकर अपने व्यापार, होटल, कारखानों के लिये सस्ते दामों में भूमि प्राप्त करना हैं" ऐसा नहीं हैं कि वन विभाग इन कंपनियों की मंशा नहीं जानता लेकिन अपने आप को जंगलो का रखवाला बताने वाला वन विभाग आज भी देश के सबसे बड़े जमीदार की भूमिका निभा रहा हैं और इसके द्वारा अंजाम दिये जा रहे अत्याचार, शोषण, उत्पीडऩ, अवैध वसूली, त्रासदी से परेशान होकर वनो एवं उसके रहने वाले वन आश्रित ग्रामवासी धीरे-धीरे वनों को छोड़कर पलायन कर रहे हैं यह इन वनवासियों के साथ अन्याय नहीं तो क्या हैं आज वनाधिकार कानून २००६ लागू हो गया हैं किंतु इसके बाद भी वन विभाग वन सुरक्षा, वन्य जीव संरक्षण एवं प्रोजेक्ट टाईगर के कार्याे में पूर्णत: असफल रहा हैं आज वृक्षारोपण के नाम पर कागजों में पेड़ लगते है वनो का क्षेत्रफल आज तक नहीं बढ़ पाया हैं वह भी तब जबकि आजादी के बाद से लेकर आज तक लोगों की खेती, निवास, व्यापार की लाखो हेक्टेयर भूमि जंगलो में समाहित कर वन भूमि में इजाफा करने का कार्य किया गया हैं वन विभाग की असफलता के परिणामत: वन्य जीवों की संख्या में कमी आई हैं प्रोजेक्ट टाईगर असफल रहा हैं।
सेव अवर टाईगर्स अभियान में लगी इन कंपनियों के मंतव्यों को देखा जाये तो वे केवल बाघो के नाम पर अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये प्रचार-प्रसार कर रही हैं इनका बाघों के संरक्षण से कोई लेना देना नहीं हैं अगर वास्तव में बाघो को बचाने में इनकी रूचि होती तो प्रचार-प्रसार में करोड़ो रूपये खर्च करने के बजाये वे वन्य जीव संरक्षण जिसमें बाघ भी शामिल हैं उनके लिये फील्ड यानि वन क्षेत्रों में सार्थक प्रयास करके जितना रूपया टीवी, अखबार, विज्ञापन, खिलाड़ी एवं मॉडलों पर खर्च कर रहे है उतना रूपया अगर वन्य जीव संरक्षण संबंधित कार्य जिन योजनाओं के क्रियान्वयन में वन विभाग नाकाम रहा हैं ऐसे क्षेत्रों को चिन्हित करके वन प्रबंधन के कार्य करा दिये जाते या वनाधिकार कानून को सफल रूप से क्रियान्वित करने के काम में खर्च कर देते तो जंगलो के साथ-साथ बाघो का भी भला हो जाता।
पेंच अभ्यारण में प्रवेश करते ही ऐसा लगता हैं कि किसी महानगर में आ गये हो क्योंकि अभ्यारण के द्वार तक अब प्राकृतिक सौंदर्य तो बचा ही नहीं खवासा से पेंच द्वार तक पूरी जमीन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कब्जे में आ गई हैं जो जमीन के मालिक थे वही आज इन कंपनियों के नौकर हैं यह देखकर ऐसा लगता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी सिवनी में आ गई हो।