Wednesday, August 4, 2010

मेरी जात हिंदुस्तानी हैं




जातिगत जनगणना पर आक्रोश
सिवनी-:जाति की जनगणना के लिये यह तर्क दिया जाता है कि अगर हम आदिवासियों, दलितो, पिछड़े वर्ग को आरक्षण का लाभ देना चाहते है तो जनगणना में जाति का हिसाब तो रखना ही होगा इसके बिना सही आरक्षण की व्यवस्था कैसे बनेगी हो सकता है कि जिन्हें आरक्षण न देना हो उन सर्वणो से उनकी जात ही न पूछी जाये लेकिन आज भी मेरे भारत देश में मेरे जैसे कुछ लोग ऐसे हैं जो कहते है कि मैं हिंदुस्तानी हँू हिंदुस्तानी के अलावा मेरी कोई जात नहीं और मैं जन्म के आधार पर दिये जाने वाले कोई आरक्षण को नहीं मानता।
ये आरक्षण की ही देन है कि जिसे जरूरत होती हैं उसे रोटी भी नहीं मिलती और जिसके पास जात होती हैं वो मलाई खाता हैं जनगणना में जाति का समावेश सर्व प्रथम १८७१ में अंग्रेजो ने देश को तोडऩे के लिये किया था किंतु उस समय भारतवासी जागरूक थे आज की तरह कायर नहीं थे उन्होनें सन १८५७ की क्रांति में इसका पुरजोर विरोध किया था क्योंकि इस समय कोई भी व्यक्ति अपने नाम के साथ अपनी जात नहीं लिखता था जैसे रानी लक्ष्मीबाई, कालीदास, कोटिल्य, वाणभट्ट, सूरदास, तुलसीदास, भवभूति, केशव, कबीर, बिहारी, भूषण सिर्फ अपना नाम ही लिखते थे जातियों की सामूहिक राजनैतिक चेतना का जहर भारत में अंग्रेजो ने ही घोला हैं किंतु उस जहर को हम आज भी क्यों पीते रहना चाहते हैं....?
मजहब के जहर ने १९४७ में भारत के टुकड़े कर दिये और भाषाओं का जहर सन १९६४-६५ में गले तक आ गया था हमारे संविधान के निर्माताओं ने आजाद भारत की पहली सरकार ने जनगणना में से जाति का जहर हटा दिया था। १९३१ में अंग्रेज सैनसस कमीश्रर जे.एच. हट्टन ने जनगणना में जाति को हटाने का विरोध इसीलिये किया था क्योंकि वे प्रसिद्ध नेतृत्व शास्त्री भी थे इसका कारण यही था कि लोग फर्जी जाति लिखाकर आरक्षण का फायदा ले लेते थे जनगणना में राजपूत अपने आप को ब्राहृण, शूद्र अपने आप को वैश्य, वैश्य अपने आप को राजपूत और कुछ शूद्र अपने आप को ब्राहृण लिखा देते थे आज भी इसके अवशेष जिंदा हैं जाति की यह शराब राष्ट्र और मजहब से ज्यादा नशीली हो सकती हैं मेरा एक ही सवाल हैं


"जिस कांग्रेस ने १९३१ में विरोध कर जनगणना से जाति को हटाया था उसी सिद्धांत को कांग्रेस ने आज क्यों सिर के बल लाकर खड़ा कर दिया"